tag:blogger.com,1999:blog-5953592329643199323.post2153119887891537633..comments2023-10-24T08:35:13.807-07:00Comments on Spiritual Writings by Swami Nikhilanand of JKP Radha Madhav Dham: Hare Ram maha mantraRadha Madhav Dhamhttp://www.blogger.com/profile/10254607454718001828noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-5953592329643199323.post-80315119588669088892011-11-20T10:02:20.074-08:002011-11-20T10:02:20.074-08:00सनातन सिद्धांत
जीव व्यर्थ ही {नाना प्रकार के - अछ...सनातन सिद्धांत<br /><br />जीव व्यर्थ ही {नाना प्रकार के - अछे- बुरे }कर्म करता है <br /><br /><br />उसका फल भी स्वयं ही भोगता है वह स्वयं ही <br /><br /><br />सांसारिक मोह माया में फंसता है और स्वयं ही इसे <br /><br /><br />त्यागता है || यही सनातन सिद्धांत है <br /><br />वस्तुतः मनुष्य के हाथ में कुछ भी नही है ऐसा भी नही<br /><br /><br />की मनुष्य खाली हाथ आता और खाली हाथ जाता हो<br /><br /><br />मनुष्य ग्रहों -नक्षत्रों की फोज के आधीन प्रकट हो<br /><br /><br />नाना प्रकार के कर्मों में फंस कर उन के अछे - बुरे<br /><br /><br />फलों को भोगता भोगता चतपताने लगता है ,तब मनुष्य<br /><br /><br />को परमात्मा की याद आती है और इस जंजाल से छुटने<br /><br /><br />का उपाए धुड़ता है परन्तु परमात्मा पर भरोसा ना कर<br /><br /><br />किसी यंत्र -मन्त्र -तन्त्र -योग- व्रत -तप देहधारी गुरु<br /><br /><br />या माया के जाल में फंस कर और कष्ट उठाता है वो<br /><br /><br />यह भूल ही जाता है की परमात्मा ने कहा है कि <br />श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के (स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है।) त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को (ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार आजीविका द्वारा गृहस्थ का निर्वाह एवं शरीर संबंधी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें इस लोक और परलोक की सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग का नाम सब कर्मों के फल का त्याग है) त्याग कहते हैं॥2॥ <br />जब कि परमात्मा कहते हैं <br /> हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में (लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर एवं शरीर और संसार में अहंता, ममता से रहित होकर एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भाव से अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरंतर भगवान के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिंतन करते रहना एवं भगवान का भजन, स्मरण करते हुए ही उनके आज्ञा अनुसार कर्तव्य कर्मों का निःस्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना यह 'सब प्रकार से परमात्मा के ही शरण' होना है) जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा॥62॥ <br />अतः मनुष्य का यह माना कि देह धारी गुरु ही भवसागर पार करवाए गा बहुत बड़ी भूल होती है <br /> इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर॥<br />संजय ने अपना मत गुरु के प्रति गुरु केरूप में परमात्मा को ही कहा है <br />यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।<br />तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥<br />भावार्थ : हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है॥Anonymousnoreply@blogger.com